मोतिहारी
होली के आगमन पर होली को लेकर न हो परंपरा दिख रहा ना हीं होली चौपाल। नवीनतम युग में अब ढोलक व डोफ की आवाज के लिए तरस रहे है। वहीं होली के पूर्व संध्या पर होलिका दहन की परंपरागत तरिके अब बदलता नजर आ रहा है। अब न तो ढोलक की थाप पर चैता-चैपाल सुनाई पड़ रही है और न ही समूहों द्वारा गाये जाने वाले फगुआ गीत। पहले होलिका दहन एवं होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों के अंदर विशेष भाव छिपे रहते थे। चाहे पिया के वियोग में विरहनी द्वारा फागुन मास में गाये जाने वाले गीत हों या सबकुछ भूल कर होली के रंग में आनंदित होकर गाये जाने वाले फगुआ गीत सिमटता जा रहा है। जहां होली की फुहर गाने भारी पड़ रहे है। अब होलिका दहन की परंपरा भी महज औपचारिकता बन कर रह गयी है। पूर्व की तरह बिधिवत सम्मत जलाने का तौर तरीका व उत्साह बदलते जा रहा है। ना वह झूंड ना वह टोली ना ढोल, डोफ व झाल करताल की गूंज। एक दशक पूर्व तक होली के पूर्व होलिका स्थापित कर ईष्र्या, क्रोध व कुपृव्रत्तियों को जलाने की परंपरा में व्यापक सामाजिक सहभागिता सुनिश्चित की जाती थी। इसी के तहत होलिका में कुछ न कुछ हर घर से डालने की भी परंपरा थी। बदलते परिवेश में यह भी समाप्ति की तरफ है। होली के पखवारे भर पूर्व से गाये जाने वाले रस भरे लोक गीतों का स्थान फूहड़ गीतों ने ले लिया है। ऐसा माना जा रहा है कि परंपराओं के प्रति अब लोगों में वह उत्साह नही रह गया है। अब लोग आधुनिकता की तलाश में पुरानी और परम्परागत चीजों को पीछे छोड़ते जा रहे है।
परंपरा के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा की रात होलिका दहन किया जाता है और उसके अगले दिन होली मनाया जाता है। सनातन संस्कृति में होली का त्योहार बहुत मायने रखता है। इस पर्व में आपसी बैर और द्वेष को भुलाते हुए एक-दूसरे को रंग लगाकर भाईचारे का संदेश दिया जाता है। आज भी क्षेत्र के कुछ ग्रामीण जगहों पर ढ़ोलक की थाप और फाग का राग दिख रहा है। लेकिन अधिकांश जगहों पर यह परंपरा सिमटता जा रहा है। इसी को देखते हुए सुगौली के सुगांव में शुक्रवार के रात सुगांव में बुजुर्गों द्वारा डोफ और करताल के धून पर होली की लोक परंपरागत गाने का आयोजन किया गया। इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता संदीप कुमार मिश्रा ने बताया कि लोक परंपरा की बिरासत को बचाये रखने की दिशा में बुजुर्गों द्वारा यह प्रयास किया जा रहा। आज उस परंपरा को बचाने की जरूरत है।
बुजुर्गों का कहना है कि अब लोक परंपरा के प्रति पहले जैसा दिलचस्पी नहीं दिख रहा है। न वह सुर ताल ना हीं वह चढ़ाव उतार ना हीं वह होली की लोकभावन गीत व परंपरा रह गया है ना हीं उत्साह। अब कुछ कम लोग हीं रह गए है कि लोकपरंपरा को ढो रहे है और ढोल – डोफ व झाल के धून पर अपना कलाकारी परोस रहे है। मुखिया प्रभाकर कुमार मिश्रा, समाजिक कार्यकर्ता प्रभाकर झा ने बताया है कि लोकपरंपरा व संस्कृति की बिरासत को संजोय रखने की जरूरत है।